हम क्रांति क्यों नहीं लाते ? क्या हम क्रांति लाने में असमर्थ हैं ? अगर हाँ तो क्यों ?


(This piece is written with no ill intentions towards anyone.  I let my Quill lose for some time and asked it to dance to the truth's tune as it thought of India, my beloved nation.
 This is what my QUILL scribbled. The piece is a free lance patriot's satirical commentary on India's painful political scene as on today. There is also a practical workable solution suggested at the end.)

 भारत एक गरीब मुल्क है,  दुनिया के एक-तिहाई निर्धनतम लोग और उन के साथ दुनिया के कुछ सब से अमीर लोग यहां रहते हैं।  दुनिआ में सब से ज्यादा फार्मर सुसाइड भी यहीं होते हैं और विश्व का सब से महंगा निजी घर भी इस ही देश में है।  

                                    धर्म, राजनेता और सम्पन सरमायेदारों  का चोलीदामन का साथ है। गप्पू पप्पू, वेंकु फेंकू, सल्लू बल्लू , अम्बानी अडानी, साधु साध्वी , योगी भोगी, बाबा बेबी, नेता अभिनेता  --- सब--- एक ही क्लब के मेंबर हैं जो सत्ता में आने के बाद सेवा भूल कर खूब मेवा बटोरते हैं और मिल बांट कर खाते हैं।  जरूरी नहीं के ये मेवा धन दौलत का ही हो।  सत्ता का सब से मीठा मेवा तो खुद सत्ता ही है। सत्ता पे अपनी पकड़ मजबूत बनाने के लिए सत्ता का दुरूपयोग इस ही मेवे के अक्षय लोभ के वशीभूत किया जाता है। ऐसे में सत्तारूढ़ होते ही ये सत्तापिपासू लोग अलग अलग पार्टिओं के रंग और झंडे  तले  भारत की क्लेप्टोक्रेसी (Rule of Thieves),  {या अगर नरम दिल हो कर व्यवस्था का आंकलन करें तो},  भारत की  फंक्शनल अनार्की  का' सत्ता  में बने रहने के लिए भरपूर इस्तेमाल करते हैं। 

                                      भ्र्ष्टाचार के मामले में भारत दुनिया के महानतम देशो में से  एक है।  इस खेल में  अन्तर्रष्ट्रीयस जगत में इस का नाम बड़े सम्मान के साथ लिआ जाता है।  फिर भी यहां की युवा आबादी देश के बारे ज्यादा न सोच कर चीनी और अमरीकी खिलौनों को पाने की होड़ में मगन है.  कोनज़्यूमरिस्म  (consumerism) युवाओं के सर चढ़ कर बोलता है।  नेक्स्ट स्मार्ट फ़ोन, अगला हार्ले डेविडसन, अगली कार , बस यही पाने का पागलपन युवाओं पे छाया  हुआ है।

                                            इस दौर के चलते युवा जुर्म की दुनिया में सहज ही कदम रख रहे हैं।  जब देश के बड़े बड़े नेताओं का नाम रेप, गबन, डकैती, ड्रग तस्करी के साथ जुड़ा पाया जाता है  तो युवा वर्ग को जुर्म की दुनिया में कदम रखने में कोई जयादा मानसिक हिचहिचाहत नहीं होती। युवा अपने तुच्छ सपनो की दुनिया किश्तों में  खरीद कर उम्र भर के लिए बड़ी कम्पनियों के ग़ुलाम तो बनने को तैयार हैं लेकिन देश के  गंभीर मसलों  पर सोचने का उन के पास समय नहीं है।  

                                              देशवासिओं को  एतराज है कि भारत की राजनीती पर अपराधी  और तुच्छ स्तरीय नेताओं का कब्ज़ा है,  उन्हें एतराज  है कि  हर राजनीतिक दल वादों के सिवा  देश को कुछ न दे सका, उन्हें एतराज है कि कानून व्यवस्था चरमरा कर ठप  हो चुकी है,  उन्हें एतराज है कि बाड़ ही खेत को खा रही है लेकिन इन सभी एतराजों के  बावजूद  वो कुरता चप्पल पहन कर राजनीति में सक्रिय होने का बल नहीं जुटा पाते।

                            देश की भ्रष्ट राजनीती से मोहभंग होने के बावजूद भी लोग, चुनावों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। चुनावों में झूठे वादों और खोखले नारों का खूब प्रयोग होता है।  अफीम, चरस, शराब, सिंथेटिक ड्रग्स का खुला लंगर भरष्ट नेताओं द्वारा लगाया जाता है तथा  चुनावी   सभाओं में भीड़ जुटाने के लिए अश्लील नृत्य  करवाये जाते हैं।  यानी नशेड़िओं  के लिए चुनाव एक रेव पार्टी से बढ़ कर कुछ भी नहीं होता। 

                                  इस के इलावा गरीबों  में साइकिल, सिलाई मशीनें, बर्तन और यहां  तक की आटे चावल की बोरीआं  तक वितरित  की जाती हैं। यानी मुफ़लिस के लिए चुनाव इन सामग्रियों को  पाने का  एक मौका मात्र ही होता है।  युवाओं  को भी लैपटॉप, टैब तथा स्मार्टफोन के मुफ्त वितरण द्वारा बस में  करने की कोशिश जी जाती है।   

                                      भय और डर का माहौल बनाने के लिए तथा वोटबैंक को काबू करने लिए बाहुबल का प्रयोग किया जाता है।  जाती, गोत्र, भाषा,  इलाक़ा, दरियाओं का पानी, धर्म और जो भी संभव हो,  उस के नाम पर समाज को बांटा जाता है। कुर्सी की खातिर दंगे करवाये जाते हैं और भाईचारे का बार बार क़त्ल किया जाता है। झूठ की मंडी गरम करने लिए तथा उत्सव का  माहौल बनाने के  लिए मीडिया का जम कर प्रयोग किआ जाता है।

                            ऐसे में  चुनाव बदलाव का जरिया न रह कर बेईमानी, झूठ, फरेब और मनोरंजन का साधन मात्र बन कर रह जाता है।  मुद्दों पर वादे और परछाईआं भारी पड़ जाती हैं। इस के चलते  झूठ और फरेब के सौदागर सत्ता पर काबिज़ हो जाते हैं।  क्या इसे  डेमोक्रेसी कहें गे ? ये तो शत प्रतिशत क्लेप्टोक्रेसी और अनार्की है। यानी अंधेर नगरी और चौपट राजा। 

                                           इस ही सब के चलते भारत पर सबसे अधिक समय तक राज करने वाली पप्पूपार्टी,  गप्पूपार्टी से हार गयी।  वैसे जनता ने इस पार्टी को भी उस ही चोर बाज़ारी के चलते 10  साल पहले संसद से बाहर का रास्ता दिखाया था जिस के चलते  इस बार पप्पूपार्टी को बाहिर का दरवाज़ा दिखाया। 

                             वैसे भी इस जीत के लिए गप्पूपार्टी नहीं  बल्कि उस के नए नायक ही शत प्रतिशत जिम्मेवार हैं, जिन्हें उन के न चाहने  वाले फेंकू कहते हैं और हम जैसे उन के चाहने वाले भी अब स्नेहवष उन्हें गप्पू कहते हैं। ये उन की करिश्माई पर्सनैलिटी और गहरी स्ट्रेटेजिक सोच का जलवा है कि जन्ता ने गप्पुपार्टी को पूर्ण बहुमत से नवाज़ा।   दोनों पार्टिओं में सत्ता का हस्तांतरण मज़े से हो गया, हाँ विपक्ष के लीडर को ले कर कुछ ड्रामेबाज़ी हुई, लेकिन सब कुछ अंदर ही अंदर सुलझा लिया  गया। 

                                        त्रासदी है कि सिवाय बढ़ती कीमतों के देश में कोई राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन नहीं होते I पेट्रोल डीज़ल की कीमतें यहां अबलाओं की लुटती इज़्ज़त से बड़ा मुद्दा है।  चुनावों  के नज़दीक निर्भया काण्ड हुआ तो सभी ने खूब प्रदर्शन किआ, और ऐसा लगा की अब कुछ जरूर बदले गा , सरकार जागे गी, कुछ नए कानून ला कर व्यवस्था में परिवर्तन लाए गी, लेकि ऐसा कुछ नहीं हुआ।  एलक्शन के बाद भी कितनी ही अज़मते लुट गयी, कितनी ही अबलाएं जला दी गयी। 

                                        एलक्शन द्वारा,  मात्र पप्पू या  गप्पू में से कौन अगला राजा हो गा, इतना ही निर्णय हो पाया।  आज कल पप्पू बैठे खम्बा नोचते हैं और गप्पू सिंघासन पर विराजते हैं।  देश में मसले अभी भी  गंभीर रूप से उलझे हुए है लेकिन गप्पू विदेश  में भारत की पैठ जरूर बनाते हैं।  और लोग, हाँ लोग आज कल अगले ग्रैंड शो , यानी अगली एलक्शन का इंतज़ार करते हैं।  लोग पहले  पप्पू, पप्पू की माँ, पप्पू के जीजा , पप्पू के सरदार अंकल और पप्पू के कूकर-मानुष  साथीओं को कोसते थे.… आज कल गप्पू और उस के कूकर-मानुष साथीओं को कोसते हैं।

                                                हम इस गले सड़े सिस्टम के खिलाफ बगावत क्यों नहीं करते युवा चे-ग्वेरा वाली टी शर्ट तो पहनते हैं, लेकिन चे किस बात के प्रतीक हैं, उन्हें कुछ पता नहीं ! भगत सिंह का स्टीकर कार पे लगाना , भगत सिंह की तरहं बसंती पगड़ी पहनना या फिर शहीदों की समाधि पे जा कर कुछ आंसू बहाना एक रिवायत, एक फैशन सा हो गया  है। कारगिल के शहीदों के नाम क्या थे , करकरे कौन थे,  अश्फाकउल्लाह कौन थे, यहाँ तक की मौलाना आज़ाद कौन थे ?.... ज़्यादा  तर को पता नहीं । 

                                             कितने लोग हैं जो भ्र्ष्टाचार के खिलाफ गुस्से को अमली जामा पहनाने की हिम्मत करें गे ?  कुछ लोगों ने  कोशिश की , अन्ना हज़ारे के नेतृत्व  में , लेकिन सत्ता के प्रलोभन में सब छंट गए।  एक पूर्व जनरल तो वक़्त की हवाओं में बह गए और किसी खुशगवार मंज़िल की तलाश में  कारवाने  इश्क़ छोड़ कर कारवाने वक़्त  के साथ हो लिए, तथा  एक पूर्व उच्च पुलिस प्रशाशक खूब झंडा वंडा हिला कर  अंततः  केसरी छतरी के निचे जा विराजीं।    बहुत  से लोग इस सब को समझदारी  कहते हैं।

                                          अन्ना ही के  एक मित्र और पुराने आदर्शवादी  AK47 नाम के सज्जन, 'मैं हूँ आम आदमी' का नारा टोपी पर लिख कर और AK47 की जगह एक बड़ा सा झाड़ू हाथ में  ले कर मैदान में उतरे।  लोगों के हजूम के हजूम उन के साथ हो लिए ।  देखते ही देखते एक छोटी सी कश्ती ने टाईटैनिक जहाज का रूप ले लिआ। लेकिन ये क्या !     जहाज के कप्तान साहिब ने वक़्त के पहाड़ के साथ ऐसा जहाज भिड़ाया की वाराणसी के तट पर जहाज भी टूटा और वो खुद भी डूबे। आज कल उन्हें इस बात का मलाल है की उन का झाड़ू भी गप्पू ने चोरी कर लिया है और उन की आम आदमी की टोपी पहने बहुत से कूकर-मानुष ख़ास आदमी बनने की फ़िराक में गप्पू  के दरवाज़े पे सत्ता के बिस्कुट और बची खुची हड्डीआं मांगते नज़र आते हैं। 

                                             व्यवस्था परिवर्तन के लिए  हिम्मत की पतवारों के साथ साथ जहाज पर स्ट्रेटेजिक सोच  का तोता बैठाना भी  जरूरी होता है। स्ट्रेटेजिक सोच के न रहते इन जंगजुओं  का वो हाल हुआ, कि  खेत की हल-चलायी, फसल-बुआई  और फसल की रक्षा  तो झाड़ू ब्रिगेड  ने की लेकिन फसल काट  कर ले गयी भगवा ब्रिगेड। आज कल ज्यादातर   लोग भगवा भगती में जुटे हैं क्यों की चटुकारिता और मौका परस्ती एक राष्ट्र व्यापी रोग बन कर देशभग्ति और स्वाभिमान के जज़्बे को ग्रस चुका  है।  

                                              भारतीओं को सब से ज्यादा गुस्सा प्याज की कीमत बढ़ने पर आता  है। पड़ोसी के घर में आग लग जाये या किसी  अबला की अज़मत लूट कर उसे ज़िंदा जला  दिया जाए,  कोई अमीरजादा किसी  गरीब को SUV से कुचल दे.…  या जी.टी. रोड पर.…  एक युवा के ऊपर से इतने वाहन निकल जाएं कि  उस का शव भी  बाकी न रहे, तो अमनपसंद भरतवंशियों को  गुस्सा  नहीं आता।  

                                   सिस्टम पर अपना गुस्सा निकालने  का एक आसान तरीका  भी देश वासीओं ने ढून्ढ लिया है।   हम सिनेमा में बैठ कर अमिताभ, धरमिंदर , सलमान, सनी  या संजय के जरिये भरष्ट पुलिस वालों, नेताओं और  गुंडों को तस्सली से पीट कर अपने मन की भड़ास निकाल लेते हैं। हम अपने इन सिनेमा  नायकों के जरिये भरष्ट पुलिस वालों को गोलिओं से भून डालते हैं, भरष्ट व्यपारिओं के गोदामों में आग लगा देते हैं, गुंडों को घूंसे मार मार कर हवा में उछाल देतें हैं और नेताओं को तो नंगे कर के दौड़ा दौड़ा कर पीटते हैं। रहा सहा गुसा  फेस बुक और ट्विटर पर सिस्टम को गालियां दे कर निकाल लेते हैं।   कुछ लोगों का सपना था  की सिस्टम को ऊँगली करें गे लेकिन ऊँगली फिल्म की ऊँगली गैंग ने सुनहरे पर्दे पर वो सपना भी पूरा कर दिया। अब क्या ? अब कुछ नहीं।  बस अगली एलक्शन का और अगली फिल्म का इंतज़ार है।  
                                                
                                                हम क्रांति क्यों नहीं लाते ?   हम बगावत क्यों नहीं करते ?.......... हम  हीरा तो पाना चाहते हैं लेकिन कोयले की खान में घुस कर अपने हाथ काले नहीं करना चाहते ! हम आलसी और आराम तलब हैं।  हम बेईमान हैं , इतने बेईमान की हम खुद को भी छलने से गुरेज़ नहीं करते। एक और कारन भी है।  हम आज भी क्रांति लाना सीखे ही नहीं।  हम बगावत या क्रांति को गोलिओं बंदूखों और  खून खराबे के साथ जोड़ कर देखते हैं।  हम गांधी के वशंज गांधी  को भूल गए हैं ।  यदि हम गांधी द्वारा सिखाए गए बगावत के तरीके अपनाते भी हैं, तो कुछ देर बाद ही उसे व्यवस्था परिवर्तन की चाबी न जान  कर सत्ता प्रप्ति की चाबी की  तरहं इस्तेमाल  करने लगते हैं।   

                              ऐसा ही कुछ अन्ना से टूट कर 'आप' ने किया। व्यवस्था के खिलाफ उठी  शान्तीवान बगावती लहर को, जिसे  अभी और चलने देना चाहिए था, कुछ सट्रेटजिक खामियों के चलते जल्दबाज़ी में  तबाह कर दिआ गया।   जिस कांग्रेस के खिलाफ  सारी लड़ाई लड़ी गयी, उस ही के साथ मिल कर दिल्ली में सरकार बना ली गयी।   कुछ लोग इसे अकलमंदी कहते हैं लेकिन क्रांतिकारी इसे न माफ किए जाने वाली गलती कहते हैं।  ये क्रान्ति कारी वो हैं जिन्हों ने सर्द रातों में अपनी दिहाड़ी तोड़ कर या अपनी पढ़ाई छोड़ कर शांतिमय क्रान्ति यज्ञ में अपने वक़्त और पैसे की आहुति दी।  

                                                 हम क्रांति क्यों नहीं लाते ?   हम बगावत क्यों नहीं करते ?........  हम  धोखेबाज़ हैं और खुदगर्ज़ हैं।  हम  खुद आगे बढ़ कर क्रंति दूत बनने से कतराते हैं।  हम वो भेड़ें हैं जो जब भी कभी किसी एक चरवाहे से मायूस होती हैं तो दुसरे चरवाहे की और देखती हैं।  चरवाहा कोई  भी हो, वो भेड़ों को नयी घास के सपने दिखाता हुआ,  राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के बूचड़खाने में ले जाता है और  सत्ता की डायन के सामने उन की बली  चढ़ा देता है।  हम बार बार ये धोखा खाने को तो तैयार हैं लेकिन खुद अपनी आज़ाद छलांग लगाने से कतराते हैं,  और इस ही वास्ते हम किसी भी संघर्ष को एक पूर्ण क्रांति  का चोला पहना कर किसी सार्थक परिवर्तन तक नहीं ले जा सकते।

                                                      समस्या यही है बस। समस्या का निवारण  करने हेतु,  देश के लिए, अपने लिए और आने वाली नस्लों के लिए कुछ  करने हेतु हमें स्थिति का  पुन्हां आंकलन करना हो गा। हमें  नए सिरे से  जंग तुरही  बजानी हो गी। हमें देशवासिओं को यह बताना हो गा कि   'आप' की हार देश की हार नहीं है और कांग्रेस की हार पूर्ण भ्र्ष्टाचार की हार भी नहीं है ।  भ्र्ष्टाचार का राक्षश आज भी वैसे ही मुंह खोले  खड़ा है।  हमें देशवासिओं को यह बताना हो गा कि कांग्रेस भाजपा और आप के इलावा भी विकल्प हैं।  हमें देशवासिओं को यह अनिवार्य रूप से बताना हो गा कि देश को इन पार्टिओं से आगे बढ़ कर सोचना हो गा।  याद रहे कि जब तक ये न हो पाये, कम से कम  तब तक,  किसी भी प्रत्याशी को उस की पार्टी देख कर चुना जाना एक बड़ी भूल हो गी , चाहे  उस के लिए कन्वेसिंग पप्पू  कर रहे हों  या गप्पू कर रहे हों।  लोकल बॉडी एलेकशन, विधानसभा चुनाव या संसद,  किसी भी राजनितिक प्रतिस्पर्धा  में वोट डालते समय आप को  यह सदैव याद रखना हो गा कि  आप अपना नेता सिर्फ और सिर्फ उस के निजी गुण अथवा अवगुण देख कर ही चुनिए , फिर चाहे वो किसी भी पार्टी, जाती या धर्म  से सम्बन्ध  क्यों न रखता हो।  

                                          जब हम  हर कैंडिडेट को उस के निजी गुणों के लिए ही चुनें गे तो चापलूस और मौकापरस्त  लीडर धीरे धीरे अपने आप छंट जाएं गे और सिस्टम में एक जरूरी बदलाव आना शुरू हो जाए गा।  इस का एक  बहुत बड़ा फायदा यह  भी  हो गा कि किसी एक पार्टी का बर्चस्व देश में नहीं बन सके गा , फैसले मिल बैठ कर ही हों गे और देश तुगलकी फरमान और चमड़े के सिक्कों से,  दोनों ही से बचा रहे गा।

                                               याद रखिए यदि हम कोई कुता भी पालते हैं तो उस से चिपके हुए चीचड़ों और पिस्सुओं को उस के साथ नहीं पालते, उन्हें अलग हटा देते हैं ।  यदि एक जानवर  पर ये असूल लागू है तो देश के नेताओं पर क्यों नहीं। इक के साथ एक फ्री,  चिप्स के पैकेट तक तो ठीक है लेकिन देशवासियो----- एक लीडर  के साथ २००, ३०० सांसद  फ्री , वो भी जब आप दिल्ली की गद्दी  किसी को बक़्श  रहे हैं, ऐसी भूल भूल कर भी मत  कीजिये।    भ्र्ष्टाचार और राजनैतिक धोखाधड़ी के खिलाफ पहला सार्थक कदम यह ही होना चाहीए।    वन्देमातरम। ।जय  हिन्द। 
....
.कवि बलवंत गुरने aka बाशो aka गुरु गुरने. 
...

No comments:

Post a Comment