© व्यवस्था परिवर्तन, नकली डेमोक्रेसी से डीमार्कि की ऒर। © 📿📖📑गुरु बलवन्त गुरुने✒🚩⚔



© व्यवस्था परिवर्तन, नकली डेमोक्रेसी से डीमार्कि की ऒर।
© 📿📖📑गुरु बलवन्त गुरुने✒🚩⚔

भारत में आज़ादी की लड़ाई को बहुत से कम-अक्ल लोग केवल तीन नामों में समा कर अपना फ़र्ज़ मुक़्क़मल हुआ समझते हैं। यानी गांधी नेहरू और सुभाष।

वह नहीं जानते की इस जंग में कितने ही गुमनाम गांधी और आज़ाद, न बापू कहलाये, न चाचा और न  शहीद, लेकिन इस जंग में गर्क हो गए। 

इन में बलिया जैसा गुमनाम शहर, जिस ने 1942 में ख़ुद को आज़ाद घोषित कर दिया, और गुजरात के आदिवासियों के गुरु बलवन्त जैसे गुरिल्ला योद्धा भी शामिल हैं।

ख़ैर, जो भी हो, बात को अफ़साना न बनाते हुए, मुख्तसिर कहूँ, तो हुआ यह  की आज़ादी के बाद की क़यादत में, प्लूटोक्रेटस का एक नया धड़ा भारत पे काबिज़ हो गया, जो ख़ुद को कहते तो सोशिलिस्ट थे, लेकिन थे पूंजीवादी और सरमायेदार परस्त, यानि संक्षेप में कहूँ तो प्लूटोक्रेट।
  
आज़ादी के ख़ास बाद, सत्ता पर काबिज़ हुए सत्ताधारी दल का कोई ख़ास प्रतिद्वन्धी न होते हुए, हालात कुछ ऐसे हो गए, जैसे की बिना विलियन की हिंदी फ़िल्म। भाई, यदी हीरो के पास कोई लड़ने भिड़ने के लिए ही नहीं है, तो फ़िल्म कैसी, कितनी देर आज़ादी की हीरोइन को ले कर बाग़ों की सैर करते रहें गे।

सो अब विल्लीअन्न पैदा करने का मसला था, सो  उन्हों ने अपना कट्टड़ दुश्मन,  एक  सम्पूर्ण दाँयेबाज़ू पूंजीवादी ग्रुप, यानी संघ में ढून्ढ निकाला, जिस के साथ अंग्रेजों की सेवा कर के मेवा खाने का कम्पीटीशन आज़ादी से भी पहले से खादीधारियों का चल रहा था।  यानि  इस तरहं किश्ती टोपी वाला बन गया हीरो, और ख़ाकी निक्कर वाला बन नया विल्लियन, या बना दिया गया कहिये तो ज्यादा अपवाद न हो गा।

ऐसा नहीं की संघ कोई अच्छे काम नहीं करता था, सन्घ के बहुत लोग सच्चे मन से समाज सेवा के काम में जुड़ते थे, लेकिन दो बातें थी, जिस के चलते सन्घ को खलनायक के रंग में रँगना आसान हुआ। वह थीं, एक तो यह कि संघ एक हिन्दूवादी ग्रुप था,  जो मुस्लिम अकलियतों को उतना भारतीय नहीं मानता, जितना खुद को, और दूसरा यह की उस के नेताओं की शीर्ष ज़ुण्डली का ध्येय भी आखिर, सत्ता प्राप्ति ही था, जिस के चलते आम संघी तो चाहे ख़ुद को वतन परस्त समझते थे, लेकिन संघ के बड़े घाग घोगे नेता, गाय, मन्दिर-मस्जिद और दंगो की राजनीती में ख़ास दिलचस्पी रखते थे।

इस के चलते, नई  खादीधारी राजा बनी जुण्डली ने,   ख़ुद पूंजीवादी होते हुए भी,  अपने पूंजीवादी संघी रक़ीबों को न सिर्फ खलनायक की भूमिका में उतारा, बल्कि उन्हें खलनायकी का सारा साजो सामन भी इक्कठा करने दिया। उन्हें डण्डा कुल्हाड़ी से ले कर कट्टा रिवाल्वर और बन्दूक तक, सब जोड़ने दिया गया।  सत्ता धारियों को लगता था की ऐसा खलनायक उन के ड्रामे को साल दर साल, एक हिट शो बनाता चला जाये गा।

 लेकिन यहां एक ज़बरदस्त मोड़ आया। खुद बुरे न बनने के चक्कर में, संघ का  तोड़,  सत्ताधारियों ने बाएं बाज़ू तंज़ीमों को बढ़त दे कर वामपन्थियों में ढूंडा और स्थापित भी किया।

यह कुछ ऐसा था, की फ़िल्म में किसी साइड हीरो को स्क्रिप्ट में जगह दी जाए, जो हीरो के लिये विल्लियन से सीधा पंगा ले सके।

वाम सोच का प्रचार धड़ले से होने दिया जाने लगा। रूस से दोस्ती के चलते, रुसी किताबें, धड़ले से बिकने लगी, नौसिखियों युवाओं को इस सब में एक एडवेंचर, एक हंगामाखेज़ महफ़िल नज़र आई, जिस के चलते बाम पंथी होना, न सिर्फ एक फैशन बन गया, बल्कि सरकारी या गैर सरकारी दहशतगर्दी का, गडीरा भी बन गया,  जो सन्घ की सम्भावित दादागिरी  का एक अचूक तोड़ समझा जाने लगा।

बामपंथी लौंडे लौंडियाँ लाल कुरतों और काले चुस्त पजामों में कालेजों  यूनिवर्सिटियों में दिखने आम हो गए। कहानी में रंग भरने लगा। नतीजा यह की SFA के मुकाबले पे उभरे  ABVP जैसे छात्र सन्घ इस खेल के मोहरे बन कर आपस में सीधे टकराव पे उतर आये। फ़िर NSUI, जैसे युवा दल आकाश पे चढ़ाये गए, और अन्ततः हुआ यह की लालू, मुलायम, बादल, ममता, जया, माया, और यहां तक की कुछ छुटकल दलों या नेताओं ने भी अपने-अपने छात्र संघ बना डाले।

युनिवर्सिटियों में अब पढ़ाई की जगह राजनीती ज्यादा होने लगी, जिस के चलते छात्रों की पढ़ाई लिखाई की तो वाट लग गयी, लेकिन राजनेताओं की चांदी हो गयी। 

अब स्टेज पे ड्रामा गर्मा गया, कहीं कुछ, तो कहीं कुछ होने लगा। श्रोता और ड्रामा देखने वाले, एक्साइट हो गये, अपने अपने कच्छो के नाड़े कस के बाँध लिए, कुर्सियों पे पैर रख लिए, और शो के मज़े लेने लगे।

देश के असली मुद्दों से जन्ता का ध्यान हट गया और   अखबारों की सुर्ख़ियों में बट गया, जो खुद भी विज्ञापन बेचने के चक्कर में रोज़ नए हंगामों की खबरें ढून्ढ ढून्ढ कर छापने लगे, या खुद ही, हंगामे ईज़ाद भी करने लगे।

कई बार तो ऐसा भी हुआ की ख़बर छप गयी, लेकिन बम्ब नहीं फटा, तो अखबारों ने अपने गुंडे भेज कर कोई पटाखा चला दिया। यानी पत्रकारिता के पैमाने बदल गए, अब जो जितनी हंगामाख़ेज़ खबर जितने हंगामाख़ेज़ तरीके से छापता, या पढ़ता, वह उतना ही बड़ा पत्रकार बन गया।

ख़ैर फिर उस के बाद तो पत्रकारिता बिकने ही लगी, यानी पत्रकारिता केवल लाहौर की हीरा मंडी बन कर रह गई, जहां भद्दी बूढी रण्डियाँ भी, मेकअप की परतों में और चकाचौन्ध रौशनी में फ़िरदौस की हूरें नज़र आती हैं। छोड़िये, यह बात फ़िर सही, चलिये राजनीती की ओर वापिस चलें।

अब आज़ाद भारत की स्टूडेंट राजनीती नए सिरे से गर्म हो गयी।  अँगरेज़ के चले जाने के बाद, विद्यार्थी वर्ग के लड़के लड़कियां,  जो किसी राजनितिक रोष करने के अवसरों से तकरीबन ख़ाली थे, अब दायें बाज़ू सन्घ और बाएं बाजू कम्मुनिस्टों के, दलितों के, राजपूतों, जाटों के, सिक्खों के, मुसलमानों के संघर्ष स्तम्भ बन गए, और नेताओं को खेलने के लिए, बढ़िया नए खिलौने मिल गए।

 चलिये नये आज़ाद हुए सत्ताधारियों की तरफ चलें और कहानी को वहीं से आगे बढ़ाएं। जब संघी  और कामरेड आज़ादी से विचरने लगे, तो खादी मार्का लोगों ने एक नया रोमांटिक विल्लियन मैदान में लाने की सोची।

 यानी अब सफेदपोश चोर,  चम्बल के डाकुओं में, दलित सेना में, ठाकुर सेना, रणबीर सेना इत्यादी में नए यूज़ेबल और डिस्पोज़ेबल  राजनितिक मोहरे ढूंढने की क़वायद में जुट गये। 

ऐसी बहुत सी फ़िल्में डाकुओं या बागियों को हीरो बना कर बनाई गयी, जिस के चलते, डाकुओं को , सोशिलिस्ट बागियों   और माओवादियों को, हिंदी फिल्मों ने बेवजह ग्लोरीफाई किया , और इन छवियों को  ख़ास तौर पे जन-मानस के दिमागों पर अंकित किया।

सरकार के पास भी अब नए हथियार आ गए, यानी किसी को भी अंदर करने के लिए, उस के थैले में कोई कार्लमार्क्स का पर्चा किसी भी जेबकतरे से रखवा दो, और फिर उसे धर दबोचो।  या फ़िर किसी डाकू को पहले राजनितिक संरक्षण दे कर कुख्यात बनाओ, फ़िर उसे एनकाउंटर में मार गिराओ, और वाह-वाही लूटो, और या फ़िर उस से सरन्डर करवा कर, राजनीती में घुसेड़ दो, और जन्ता के वोट लूटो।

यानी आज़ाद भारत में बाग़ी, या रिबेल होने का मतलब हो गया, किसी राजनितिक दल द्वारा संरक्षित डकैती या आतंकवादी संगठन में शामिल होना, कुछ बदनाम नाम  कमाना, और फ़िर मारे जा कर हीरो बनना, या नेता के कुत्ते बन कर मंत्री बनना।

इस के चलते, कम्युनिस्ट या मार्क्सवादी होना, या फ़िर फ़ासीवादी जेहादी या चरमपंथी होना,  कालेज यूनिवर्सिटी के तालिबानों में एक फैड सा बन गया, इक किस्म का स्वैग,  जो अब भी है, और  सारे फ़सादों की अम्मा है।   

यानी किसी भी किस्म की चरमपंथी की कदम बोसी करना, फॉरवर्ड लुकिंग होना या इंटेलेक्टूअल होना हो गया, और सरकार के लिये,  किसी को भी धर दबोचने का, एक  आसान सा हथियार भी बन गया।

इस सब को इंटेलेक्टूयल और फ्री पॉलिटिक्स के नवजागरण का नाम दिया गया, जब की दरअसल कुल मिला कर यह सब, सिवाये ज़हनी फ़रेब के और कुछ,  ना है,  न था, और न होगा।

इस फ़रेब के चलते भारत पर केकिटोक्रेसी (अनपढ़ गवारों का राज), क्लिप्टोक्रेसी (चोर उचक्कों का राज), और टाईकूनोकरेसी/प्लूटोक्रेसी (अती धनाढ्यों का राज) कायम हो गया।

भारत का भविष्य, न तो पूंजीवाद में छिपा है, और न ही मार्क्सवाद या माओवाद में।

भारत को नकली लोकतन्त्र या जनतन्त्र को छोड़ कर 'डीमार्कि' नामक व्यवस्था  को अपनाना चाहिए।

ऐसा इस लिए कि,  चाहे दायेंबाज़ू सोच हो या बाएं बाज़ू सोच, दोनों ही अन्ततः लम्बे अरसों के लिये सत्ता,  ओलिगारकी के, यानी कुछ गिने चुने लोगों के ग्रुप, पार्टी, या परिवार के हवाले कर देते हैं। 

 यानी मौजूदा व्यवस्था,  बहुत से लोगों पर,  इस या फ़िर उस ग्रुप का, पार्टी का  अथवा इस या उस परिवार का बर्चस्व स्थापित करने का ज़रिया मात्र है , यानी मौजूदा व्यवस्था, बहुत से लोगों पर कुछ ख़ास लोगों का राज कायम करने का इंस्ट्रूमेंट मात्र  है।

इस व्यवस्था का तोड़ है डीमार्कि।
अब आप कहें गे कि यह डीमार्कि क्या बला है ?

डीमार्कि को समझने के दो सरल नुक्ते हैं। पहली बात तो यह  कि, डीमार्कि में कोई इलेक्शन वगैरा नहीं होते, क्यों की  इलेक्शन, सारे भ्र्ष्टाचार की जड़ है।

इलेक्शन ही के चलते सारा झूठा प्रचार, जुमलों का व्यपार, वोटों की ख़रीद फरोख्त का व्यपार, चुने हुए नुमाइंदों की ख़रीद फरोख्त का व्यपार, वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी तथा कई और किस्म का भृष्टाचार होता है। और दूसरा डीमार्कि में क़ाबिल लोगों के पूल में से,  लॉटरी निकालने के तरीके से अधिकारी या नेता चुन लिया जाता है। किसी को न तो कोई गिलाशिक्वा ही रहता है, और न ही मैनीपुलेशन का ही कोई अंदेशा। 

डीमार्कि एक सरल सा सिस्टम है।

पहले हर पदवी के लिये, चाहे वह मंत्री हो या सन्तरी, सेवक हो या प्रधान सेवक, एक निर्धारित योग्यता का निर्णय कर लिया जाये। यह योग्यता, उम्र, शिक्षा, तजरुबा, सेहत और ज़ीरो क्रिमिनल रेकॉर्ड जैसे मानकों पर तय हो गी।
जाहिर है यदी यह होता है, तो कोई चोर उच्चका या अपराधी  होना तो, चपरासी के लिए भी उपयुक्त निर्धारित मापदण्ड नहीं हो गा।

दूसरा, यह की फिर इन स्थानों के लिये जनसाधारण से आवेदन मांगे जायें, और फ़िर पास हुए आवेदकों के नामों की लॉटरी निकाल ली जाये, और फिर 4 या 5 साल के लिए इन लोगों को सरकार चलाने का मौका दिया जाये। उपरान्त निर्धारित अवधी के,  फ़िर इस क्रिया को दोहराना चाहिये। 

यह कोई नया कॉन्सेप्ट नहीं, बल्कि एथनस और अन्य स्थानों पर आज़माया हुआ कॉन्सेप्ट है, और हर जगह कामयाब सिद्ध हुआ है, चाहे मामला देश की सरकार चुनने का हो या किसी शहर की म्युनिसिपल कॉन्सल चुनने का।

मान लीजिये देश को सेहत मंत्री चाहिए, तो योग्यता हो, कम से कम एमडी तक की पढ़ाई, और न्यूनतम दस साल का डाक्टरी प्रैक्टिस का तज़ुर्बा, जिस में 5 साल सरकारी नौकरी ग्रामीण क्षेत्र में हो। अब भारत जैसे विशाल देश में कम से कम 10, 20 हज़ार योग्य व्यक्ति तो निकल ही आएं गे। डालो सब के नाम ड्रम में और घुमा दो। पहले 100 पर्चियां निकालो। फ़िर 100 में से 25, और फिर 25 में से एक, और इस तरहं देश को बिना इलेक्शन का खर्चा किये, एक असल में, योग्य सेहत मंत्री मिल जाये गा।

सभी मंत्रालय, चाहे रक्षा मंत्री हो या शिक्षा मंत्री,  पहले, योग्यता, के दम पर अपना नाम पेश करें गे,  और फ़िर योग्यता प्राप्त लोगों के नामों को लॉटरी की तरहं, चान्स द्वारा चुन लिया जाए गा।
सभी उम्मीदवारों की उम्र कम से कम 40 साल और ज्यादा से ज्यादा 65  साल हो, कोई क्रिमिनल,  चीटिंग या फ्रॉड का केस ना हो, बाकी ज्ञान विज्ञान की योग्यता अपने विभाग के अनुसार हो।

यानी कोई शिक्षा मंत्री बनना चाहे, तो कम से  कम पीएचडी की डिग्री, 10 साल का शिक्षण अनुभव, जिस में कम से कम 5 साल की सेवा किसी ग्रामीण इलाके में हो, रक्षा मंत्री के लिये, 10 साल की सैनिक सेवा, और रक्षा विज्ञान में कम से कम एमए, इत्यादि इत्यादि। 

मेरा दावा है की हर एक पद के लिए 140 करोड़ लोगों के मुल्क में कम से कम 10,000 हर तरहं से योग्य लोगों का नामांकन होना अत्यंत सरल सी बात हो गी। जब लोगों में से सब से योग्य लोग सरकार बनाएं गे, वह भी किसी राजनितिक तोड़जोड़ के बिना, तो भृष्टाचार मुक्त, योग्य सरकार देश को मिले गी ही मिले गी।

इसे किसी दीवाने का स्वपन न समझिये, यह एक कारगर, भृष्टाचार रहित, क़ाबिल और सुचारु व्यवस्था, किसी भी छोटे या बड़े मुल्क को देने का, अत्यंत सरल और असरदार तरीका है। न रहे गी राजनीती की गन्दगी, न भ्र्ष्टाचार, न झूठ का गरम बाजार।

बस कोई देशभग्त नेता फ़िलहाल ऐसा मिल जाये जो इस कॉन्सेप्ट को समझ ले, और संवैधानिक तौर पे लागू कर दे।

 हाँ सिर्फ राष्ट्रपति ही एक पद हो गा, जिस के लिए कोई भी आवेदन दे कर, पद के लिए जन्ता द्वारा चुना जाये। यानी, कोई  MLA, MP, या म्युनिसिपेलिटी का चुनाव नहीं, केवल एक चुनाव, और वह केवल राष्ट्रपती का।

राष्ट्रपती, का काम हो गा यह देखना, की कोई भी योग्य अधिकारी, कर्मक्षेत्र में अयोग्य पाया जाये, तो उस को बर्खास्त किया जाये। छोटे से लेख में इस से ज्यादा लिखना सम्भव नहीं। 

मेरे विचार से  या तो वह लोग इस विचार से असहमत हों गे जो अत्यंत दाँयेबाज़ू या फिर अत्यंत बाएंबाज़ू सोच रखते हैं, और या वह, जो कोई सोच ही नहीं रखते।

 पहले दोनों प्रकार के लोग जब अत्ती पे आ जाएँ तो समाज और राष्ट्र के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होते हैं, और तीसरी प्रकार, यानी अचिंतनशील व्यक्ति तो वैसे ही समाज के खप्तकार मात्र ही हुआ करते हैं।  

यही वह व्यवस्था परिवर्तन है, जिस का मैं अक्सर ज़िक्र करता हूँ।
🚩तत्त सत्त श्री अकाल🚩
📿गुरु  बलवन्त गुरुने ⚔

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