अंजामे गुलिस्ताँ क्या हो गा ??? @ ✒गुरू बलवंत गुरुने⚔

अंजामे गुलिस्ताँ क्या हो गा ??? @ ✒गुरू बलवंत गुरुने⚔

© राजनीती की शतरंज पे गुजरात और हिमाचल का पासा फेंका जा चुका है। मौका परस्त  लोग अपनी राजनितिक रोटियाँ सेकने में लगे हैं। उन्हें विशवास है, एक दृढ़ विश्वास,  कि व्यवस्था पे शायद सत्ताधारी इतने काबिज़ हो चुके हैं, कि अब वह कुछ भी कर गुज़रने से गुरेज़ न करें गे, और जीत उन्ही के नाम दर्ज हो गी।

दूसरी ओर लोकतन्त्र के हिमायती, इस उम्मीद पे बैठे हैं की नहीं, शायद इतनी बड़ी धांदली सम्भव नहीं।
और  देश के ज्यादा तर लोग उन भेड़ों की तरहं हो गये हैं, जो भेड़ियों से घिर गई हों। सिवाय ममियाने के शायद कोई कुछ जानता ही नहीं, बस बेबस और मजबूर ममियाहट सी सुनने में आ रही है, जो गुस्से में तब्दील भी हो सकती है, यदी वह सभी नेता, जो अपनी अपनी खाल बचाने में लगे हैं, अपनी खुदगर्ज़ी और अपनी कायरता से उभर कर सामने आएं।

अब मामला धैर्य से हट कर हिम्मत और शौर्य पे आन पड़ा है, क्यों की सत्य के लिये खड़े होना तो दूर, सत्य के पक्ष में बोलने वाले भी मुहाल होते जा रहे हैं।  तो ऐसे में सरकट नेता ही सामने आ कर कुछ करें तो करें, बिकाऊ या तो बिक गए, या बिकने को तैयार बैठे हैं।

ऐसा क्यों है। यह जानने के लिये मैंने, पतलून और टाई कस के  कुछ सोशल क्लब्स का जायज़ा लिया, और साथ ही अपने मैले कुचैले भेस में कुछ सड़कों पर भी घूमा,  कुछ बुद्धिजीवियों से भी मिला और कुछ आम कामकाजी लोगों से भी, साथ ही बाजार पे भी नज़र मारी।

निष्कर्ष यह निकला,
1.  ज्यादा तर लोग निराश हैं। वह कह रहे हैं की लुटती तो मतदान पेटियां भी थी, लेकिन अब तो लगता है पूरा का पूरा मतदान ही लूटा जा रहा है, और अगर  एक्सिट पोल जो कह रहा है वह सत्य हुआ, तो हाथ चन्दन को आरसी क्या, यह कथन सिद्ध हो जाये गा।

2. विपक्ष यदी इतना कमज़ोर पड़ गया, या कर दिया गया, कि उस के हाथ से जीती हुई बाज़ी भी सत्ता पक्ष ले उड़े, तो समझ लीजिए की उस के पास सड़कों पे उतरने के इलावा और कोई चारा नहीं रह जाए गा। और यदी ऐसा करने में विपक्ष विफ़ल हुआ, यानी कृष की नगरी गुजरात में हुए लोकतन्त्र नामी द्रौपदी के चीर हरण के बाद भी कुल मिला कर देश के लोकतन्त्र के पल्ले बनवास ही पड़ा, तो देशवासियों को महाभारत करना ही हो गा, अन्यथा, विपक्ष नहीं, बल्कि लोकतन्त्र ही एक लम्बे बनवास पे चला जाये गा।

3. बाज़ार की कहें तो, वह लुढ़कने की तैयारी में है। खास तौर पे नेपाल में जो हुआ, वह एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पे चीन के हाथोँ भारत की हुई कूटनीतिक हार है। मुद्रा बाजार के साँढ़ दावा कर रहे हैं की हम सब कुछ सींगों पे उठा लें गे, कोई फ़िक्र नहीं,  लेकिन तमाम भालू, अपने सामान को यूं समेटने की तय्यारी  में लगे हैं जैसे की किसी हमलावर के बड़े आक्रमण से पहले, व्यपारी लोग शहर छोड़ कर जाने से पहले करते हैं।

4. कुछ पढ़े लिखे मौका परस्त लोग, कुछ अफ़सर शाही से जुड़े लोग और कुछ धर्म भ्रांत लोग, अभी भी अपने आप को सत्तापक्ष के पक्षधर बन कर इस तरहं पेश आ रहे है, जैसे कि उन की मन की मुराद पूरी हुई हो, और वह यही चाहते हों जो होने जा रहा है, या जिस के होने की उम्मीद जताई जा रही है।  लेकिन अंदर ही अंदर सब की बोलती बन्द है, क्यों की लोकतन्त्र में किसी भी दल का इतना बड़ा बर्चस्व, कभी भी आम जन्ता की राय से बन ही नहीँ सकता। सभी कहते हैं की यदि एक्सिटपोल के नतीजे सही निकले तो समझो दाल में कुछ काला नहीं, बल्कि दाल ही काली है।

5.  मेरा निष्कर्ष यह है की यदि गुजरात में एक ज़बरदस्त एंटी-इनकम्बेंसी-वेव के बावजूद, भाजपा जीत जाती है, तो समझ लीजिये, की उस के बाद सत्ता का जो नंगा नाच खेला जाये गा, वह अद्वित्य हो गा। देश में यदी गुजरात जैसे माहौल में भी सत्तापक्ष जीत जाता है, तो अवश्य ही इस के दूरगामी परिणाम दुर्भाग्य पूर्ण  हों गे।

6 .  मैं यह भी दावे के साथ कह रहा हूँ कि इस सब रेलमपेल  का कारण भारतीयता  का लुप्त होता हुआ पौधा ही है। आलम यह है कि भारत से भारतीय तो गायब हैं, हिन्दू सिक्ख और मुसलमान हर जगह, हाज़िर हैं।  जाट, सैनी, पटेल, राजपूत, दलित वगैरा वगैरा जगह जगह दिख रहे हैं, लेकिन भारतीय नदारद है।

7. यह भी की सभी, बुद्धिजीवी, अफ़सर, ब्यूरोक्रेट्स, और जिस का बस चले वह, इनाम और कुर्सी बटोरने में लगे हैं। कभी कॉंग्रेसी चमचों द्वारा पकड़ी गयी कुर्सियों पर, अब भाजपाई चमचों में बैठने की  होड़ है। यानी मारम- मार का आलम है। कुछ लोग बस अपनी तनख्वाह बढ़ाने में या फिर गोल्फ या ताश के पत्ते या फ़िर 'I am better than you' का खेल भर खेल कर अपने आप को भूरे अँगरेज़ बनाने की होड़ में लगें हैं।
प्रोफेसर HOD और VC बनने की जंग में व्यस्त हैं, मास्टर हेडमास्टर बनने की दौड़ में हैं, पटवारी नायब तहसीलदार बनने की होड़ में हैं,  तहसीलदार IAS बनने की होड़ में हैं, और IAS और भी मलाईदार कबाब पाने और खाने की होड़ में लगे हुए  हैं। किसान हैं कि  मर रहे हैं, फ़ौजी नाखुश हैं, विद्यार्थी अपनी कक्षा में बैठे अध्यापकों का इंतज़ार कर रहे हैं,  और अध्यापक हर एक दो महीने बाद या तो एलक्शन ड्यूटी कर रहे हैं,  और या फिर खुले में संडास कर रहे लोगों को ऐसा न करने का सबक पढ़ाने में लगे हैं।

8.  इस सब के चलते लुटेरे व्यपारिक घराने, जन्ता की जेब कतरने में लगे हैं, और नेता लोग किसी भी कीमत पर कुर्सी पे जमे रहने की कवायद में व्यस्त हैं।
मेरे निष्कर्ष कड़वे हैं, लेकिन ऐसा इस लिए है, क्यों की मैं किसी भी एक दल का पक्षधर नहीँ हूँ, केवल भारतीयता का पक्षधर हूँ।  और भारतीयता, शुद्ध लोकतन्त्रिक सोच से उपजा पौधा है, जिस की रक्षा किसी भी कीमत पे करना अनिवार्य है।

आज जहाँ बात आन पहुंची है, तो बस श्री गोपाल कृष्ण भट्ट, 'आकुल' की इन पंक्तियों को दोहराना पड़े गा...
"कांड हादसों घोटालों से,फ़ि‍क्‍िंसग और हवालों से।
लि‍खे जा रहे सफ़्हे ग़दर के बाद अनेकों सालों से।
जब से लोकशाही के घि‍नौने, रूप सामने आने लगे।
क्‍या उम्‍मीद करें जस्‍टि‍स की जहां जस्‍टि‍स ही आँसू बहाने लगे।
तू भूल गुज़श्‍ता भारत को,  अब कोई करि‍श्‍मा क्‍या होगा?
हर शाख पे उल्‍लू बैठा है, अंजामे गुलिस्ताँ क्या हो गा।।

🚩सत्य मेव जयते, तत्त सत्त श्री अकाल🚩
© ✒ गुरू बलवंत गुरुने ⚔

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